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शुभ विवाह या तलवार की धार!

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बर्तनों की खनखनाहट से आँख खुली तो एक बार फिर मैं कल्पनालोक से सच्चाई की कठोर भूमि पर आ गिरा| ये आवाज़ इस बात का संकेत था कि रात बीत जाने पर भी बात खत्म नहीं हुई थी और वही बात आज दिन भर का एजेंडा थी| दिन बनाने के लिए मैंने अपनी सास को स्टेशन से लाने में ही समझदारी समझी| आराम का बिस्तर छोड़कर मैं रसोई में गया| स्वाति चाय बना रही थी| पास जाकर गले में हाथ डालते हुए बोला, जानू! कुछ नाश्ता भी बना दो, 10 बजे की ट्रेन है| सुनते ही जादू हो गया, मिश्री युक्त आवाज़ में बोली; हटो जी, रहने दो फिर कहोगे कि आराम नहीं करने दिया| मैं दूसरी तरफ़ देख रहा था पर मुझे पता था कि उसकी नज़र मुझपर ही थी| मैंने खुशी से उसकी बात से हटकर ट्रेन की सारी डिटेल ली और नाश्ते के बाद घर से निकल गया| पिछले एक साल से मैं और स्वाति अलग और अकेले रहे हैं| इन बारहों महीनों में मेरी सास का ये बस दसवां चक्कर था|

सड़क पर काफ़ी ट्रेफ़िक था ! पर, मुझे कोई चिंता नहीं| मुझे डेढ़ साल पहले का वह दिन याद आ गया जब मैं अपनी शादी वाले दिन इसी तरह ट्रेफ़िक में फँसा हुआ था| उस दिन मेरे मन में हजारों उमंगे थीं| सबके साथ बैठकर भी मैं अकेला था पर, तब मुझे अकेलापन महसूस नहीं हो रहा था| मिलन की आरजू में मुझे सब रंगीन दिख रहा था| माँ-बाप की खुशियों से किलकती आवाज़,रिश्तेदारों की चेडखानियाँ मुझे मदहोशी से भर रहीं थी| पर, आज मैं अपने उसी जीवनसाथी के साथ क्यों नहीं जुड़ पा रहा ? इंसान की कमजोरी कई बार उसे किसी भी मंजिल पर पहुँचने से रोक देती है| मैं भी जैसे आज अपनी मंजिल तक पहुंचना ही नहीं चाहता था| हवा का ज़ोर जैसे पत्ते को खुद उड़ाता चलता है उस पर पत्ते का कोई ज़ोर नहीं होता वैसे ही आज का एक-एक क्षण मुझे अपने पिछले दिनों की ओर धकेल रहा था| मै बरबस फिर शादी की रात जा पहुंचा| सब कुछ अच्छी तरह हो गया| शादी का एक महीना हनीमून और लाड़चाव में पंख लगाकर बीत गए|

फिर कुछ दिन में एक अनजानी-सी खामोशी का एहसास होने लगा| घर में हँसी तो थी पर उसमें खनक नहीं थी| माहौल में अजीब-सा खिचांव आ गया था| मुझे अपने अंदर घुटन लग रही थी| हम तीनों हमेशा से हँसने-बोलने में विश्वास रखते थे और अब….| इसका पता मुझे तब चला जब एक दिन मैंने आफिस से आकर देखा कि स्वाति नीचे थी| माँ भी चुप थीं| बहुत ज़ोर देने पर कहने लगीं, “मैं क्या कहूँ जिसकी जो मर्ज़ी”| फिर कुछ रुककर बोली, अब मैं पूछती हूँ कि क्या ऐसे ही कभी भी बाहर जाना चाहिए? मैंने जल्दी से कहा कि इसमें क्या बुराई है| वह पढ़ी-लिखी है, आ-जा सकती है| माँ ने जिस उत्साह से बात शुरू की थी, मैंने मानो उसे ठंडा कर दिया था| माँ चुपचाप उठीं और कमरे में चली गईं| मैंने अपने कमरे में जाते ही माहौल का हल्का करने के लिए हाल-चाल पूछा| पत्नी खाने की पूछी तो मैंने बता दिया कि माँ ने खाना खिला दिया| ये सुनते ही जो सूनामी आई उसका मुझे कोई अनुमान ही नहीं था| पूरे दिन आफिस में कमर तोड़ मेहनत के बाद ये सब मेरी सहनशक्ति से बाहर था, फिर भी मैं सुन रहा था| मैंने रात की शान्ति के लिए रोने का कारण पूछा| सिसिकियों के जो मुझे समझ आया, वह था कि उसने कहीं जाने के लिए कहा था और माँ ने बिना बताए जाने के लिए टोक दिया था| उसने फरमान दे दिया कि उसे कल सुबह अपने घर जाना है| बात को टालने के लिए मैंने उसे दूसरे दिन उसके घर छोड़ दिया| मुझे लगा कि थोड़े दिनों में सब ठीक हो जाएगा|

चार दिन बाद माँ ने मुँह खोला ‘बेटा, ये ठीक नहीं है| घर में तो छोटे-मोटे झगड़े होते ही रहते हैं पर, ऐसे अपने घर चले जाना क्या ठीक है? और तुमने भी जो बिना पूछे उसे छोड़ने का काम किया है, यह भी ग़लत है| मैं सुनकर हैरान था| मैं हैरान था कि ऐसी कौन-सी बड़ी बात हो गई? मैंने फिर शांति बनाए रखने के लिए कहा कि तुम तो बात का बतंगड बना रही हो| मैंने तो पूछा था कि क्या मैं इसे छोड़ आऊँ? माँ ने कहा कि तुमने पूछा नहीं था कहा था| फिर मैंने तुम्हे कोई जवाब नहीं दिया था| आखिर तुम अपनी ज़िम्मेदारी कब समझोगे? क्या यही सीखा है तुमने? मैं सन्न था कि क्या हो गया है माँ को? माँ तो मेरे बिना बोले सब समझ जाती थी| आज क्या हो गया? और क्या चुप्पी सहमति नहीं होती? पर, माँ के साथ बहस करके मैं उनके दुःख का कारण नहीं बनना चाहता था| इसलिए मैं सुन रहा था| मैंने स्वाति से सब भूलकर घर आने के लिए कहा| ससुर ने मिलने के लिए बुलाया, मुझे लगा अब सब ठीक होगा| वहाँ जाते ही पता चला कि मेरे यहाँ स्वाति पल-पल मर रही थी| मेरे माता-पिता ने उसका जीना हराम कर दिया था| मैं अब भी सुन रहा था| मैं मन ही मन सारी घटनाओं पर गौर कर रहा था; पर एक भी ऐसा पल नहीं याद नहीं आया जब मैंने स्वाति को दुखी देखा हो| मैंने इसका समाधान पूछा तो जवाब था अलग रहना| मैं चुपचाप वापस आ गया| मेरी चुप्पी शायद माँ ने समझ ली थी इसीलिए बोली कि बेटा अब अपने बारे में सोच| देख स्वाति हमारे साथ खुश नहीं है| कुछ अटककर बोली, तू अलग हो जा! तब ही तुम खुश रहोगे| मैं हैरान था कि माँ को सब कैसे पता चल गया| मैंने पिताजी की तरफ देखा, वह गहरी आँखों से मुझे तोलने की कोशिश कर रहे थे| उनके बिना बोले मैं समझ गया था कि उन्हें अहसास हो गया है  कि उन्होंने अपना बेटा खो दिया है| वे उसे अपने से बहुत दूर नहीं करना चाहते थे| वे सोच रहे थे कि शायद खुशी-खुशी अलग करने पर हालात कुछ ठीक रहेंगे|

मैंने अपना फ़ैसला सुनाकर कहा कि हम कोई घर देख लेते हैं| इस बात के जवाब ने तो मुझे चौंका दिया| उसने कहा कि वह कहीं नहीं जाएगी, उसे वही रहना है| मुझे अपने माता-पिता को वहाँ से निकालना होगा| वह उसका घर है| मैंने उसे बहुत समझाया कि हम अपना घर खुद बनाएँगे चाहे तो तुम भी नौकरी कर लेना पर, कोई उत्तर नहीं मिला| जैसे वह अपनी त्रिया हठ कर चुकी थी| मैं इस बार भी सुन रहा था और सोच रहा था कि जिन्होंने रात-दिन की मेहनत के बाद अपने लिए एक आशियाना बनाया था क्या वह आज इस दिन के लिए था? मैंने पिताजी से बात की| पिताजी ने छत पर बने कमरे में दोनों का इंतजाम कर लिया| उनका सामान वहाँ रखते हुए मेरा दिल ज़ार-ज़ार रो रहा था| माँ ने समझाया, बेटा ये सब तेरा ही तो है| कल तेरा हो या आज, क्या फ़र्क पड़ता है| उनकी उदारता ने जैसे पहाड़ से मुझे गिरा दिया था| इतना मज़बूर मैंने खुद को कभी नहीं पाया था| क्या शादी के बाद मैं इतना मजबूर था कि चाहते हुए भी उनकी मदद नहीं कर सकता? उन्होंने अपने फ़र्ज़ को पूरा किया था पर, मैं..मैं क्या कर रहा था? मैं सिर्फ़ सुन रहा था|

मैंने स्वाति के साथ घर बसाने का निश्चय किया| मैं स्टेशन पर पहुँचा और सामान समेत घर पहुँचा| ज़ोर-शोर से स्वागत किया गया| अब हमारी निजी जिंदगी पर कोई बंधन नहीं था| बस मुझे अपने हर पल की डिटेल देनी पड़ती है|हाँलाकि इतनी डिटेल तो मैं अपने क्लाइंट को भी नहीं देता| वह हमेशा मेरे साथ रहती है, चाहे दोस्तों से मिलूँ या बाज़ार जाऊँ| कारण, वह मेरी ज़िम्मेदारी है| मैं सोचता हूँ कि क्या मुझे प्राइवेसी नहीं चाहिए? किसी ने हंसकर बोला, क्यों चाहिए? माँ-बाप से मिला तो क्यों? मुझे कई बार ऐसा लगता है कि मैंने शादी नहीं की बल्कि मेरे पीछे भूत पड़ गया है| तभी देखा कि माँ-पिताजी सीढ़ियों से ऊपर जा रहे थे मैंने सोचा उन्हें भी चाय पर बुला लूँ पर, उससे पहले कि मैं कुछ कहता दरवाज़ा बंद हो गया| मुझे वह दिन याद आ रहा था जिस दिन माँ की तबियत खराब थी और मैंने स्वाति को चाय के लिए कहा था| उसने फ़ौरन कहा कि दूध ही खत्म हो गया| मैं समय मिलते ही माँ के पास चला गया| माँ-पिताजी देखते ही खुश हो गए, वैसे तो हम एक ही घर में थे; पर मिलने के लिए तरस जाते हैं| माँ ने कहा ‘बेटा, कितना कमज़ोर हो गया है| वाकई| पिता ने समर्थन किया| मेरे दोस्त भी शिकायत कर रहे थे कि आखिर उनका हँसता-खिलखिलाता दोस्त कहाँ चला गया?

मैं बीवी और माँ-बाप के बीच झूल रहा था| मेरे अंदर एक समुद्र उमड़ रहा था| मेरी घुटन इतनी बढ़ गई है कि मौत तक का ख्याल मैं सोच चुका हूँ, पर माँ-बाप का विचार, ये भी हिम्मत नहीं देता| ना मैं आज्ञाकारी बेटा बना ना ही अच्छा पति बना! मैं नहीं समझ पा रहा था कि आखिर मैं किसके साथ सही कर रहा हूँ और किसके साथ गलत| सास-ससुर अभी भी यही कह रहे थे कि हमारी बेटी है जो तुम्हारे साथ निभा रही है वरना आजकल तो ऐसी औरतें होती हैं की! जो अपने सास-ससुर को दूसरे दिन घर के बाहर का रास्ता दिखा देती हैं| मैं ये भी सुन रहा हूँ| रात को स्वाति ने बताया ‘तुम्हें पता है? क्या किया मेरी भाभी ने?’ मैं सुन रहा हूँ| ‘उन्होंने अलग होने के लिए कह दिया| अब बताओ मेरी मम्मी तो कुछ कहती भी नहीं|’ मुझे उसके ये शब्द अच्छे लग रहे थे| उसके सोने के बाद मैं खुद से कह रहा था, हाँ-हाँ, कहेंगी तो तब, जब वहाँ रहेंगीं| मेरा मन किया मैं ज़ोर से ठहाका लगाऊं| पर,माँ की बात याद आ गई कि आजकल बहुएँ केस कर देती हैं| चुप रहने में ही भलाई है|  फिर भी, मुझे उस दिन अच्छी नींद आई……

शायद मैं इस सामंजस्य से बच सकता था, शायद किसी ने मुझे प्रशिक्षण दिया होता तो बात कुछ और होती! परन्तु मेरे समय में इस तरह की कोई प्रशिक्षण था ही नहीं! परन्तु अब ऐसा नहीं है, Confidare नामक संस्था Safe Marriage (सुरक्षित विवाह) का प्रशिक्षण देती है| अब मैं अपने मित्रो, छोटे भाईओ को इस प्रशिक्षण को लेने की सलाह देता हूँ!

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